Friday, July 24, 2020

बरसात की एक सुबह

बरसात की सुबह थी और मेघदेवता कभी तेज तो कभी मद्धम मुस्कान बिखेर रहे थे और उस बरसात की बूंदो के बीच कोई ऐसा भी था जो अपनी नम पलकों को छुपा रहा था की कहीं कोई देख कर कमजोर न समझ ले। कभी तो बारिश की बूंदे हौसला तोड़ने का भरपूर प्रयास करती पर अगले पग की तैयारी कर चूका वो परिंदा भी पीछे मुड़ के देखने को तैयार नहीं था फिर भले दुनिया समाज निष्ठुर कहे चाहे ताने मारे पर अब आगे बढ़ते जाना है यही प्रण लिए मन मे वो चल पडा। 

हौसलों को उड़ान मिली और क्यों न मिले क्युकी जब आप कोई प्रण ले लेते हो तो प्रकृति आपका भरपूर साथ देती है। बस फिर और क्या था, रुंधे गले से उसने बड़ो का आशीर्वाद लिया ,छोटो को प्यार से पुचकारा और दोस्तों से गले लग के निकल पड़ा एक नए सफर पर छलांग के साथ आसमान नापने।  

आशा है की ये आसमान हमेशा परिंदे को प्यार देगा और नयी ऊंचाइयों पर लेकर जाएगा। 

Monday, July 13, 2020

नेताजी का धन्यवाद

शीर्षक से आपको शायद अंदाजा हो गया होगा की इस लेखनी के मुख्य अदाकार हमारे देश के नेताजी लोग है जिनके रहमोकरम से भले ये देश चल पाए या नही, व्यवस्थाएं सही हो ना हो पर श्रेय लेने में प्रथम पंक्ति में होते है और आजादी से लेकर श्रृष्टि के अंत तक ये ही लोग अपनी कृपा बरसाते रहेंगे। तो चलिए ज्यादा समय सब्जेक्ट बताने के बजाय इनके गुणगान में २-४ किस्से बयान किए जाए।

इस श्रृष्टि में जीवित रहने के लिए जैसे आपको हवा, पानी और भोजन की आवश्यकता है वैसे ही हमारे महान भारत वर्ष में आपको एक चौथे स्तंभ कि आवश्कता है और वह है नेताजी और ये में यूहीं आपके मनोरंजन के लिए नहीं कह रहा हूँ बल्कि ये तो एक परम सत्य है। नेताजी के चक्कर तो आपके जन्म से ही शुरू हो जाता है।
अमूमन घर ने बच्चो का जन्म होते ही आप ख़ुशी से सराबोर होते है भविष्य के सुनहरे सपने देखते है पर इन सपनो की गाडी में ब्रेक तब लगता है जब आपको अस्पताल वालों से दो दो हाथ करना पड़ता है क्युकी अस्पताल वाले तिल का ताड़ और बिल का पहाड़ आपके मुंह पर पटक देते है। कई परिवारजन हिचकिचाहट और सामाजिक प्रतिष्ठा बचाने लिए दांत पीस कर भुकतान कर देते है पर एक धनरहित व्यक्ति के पास कोई उपाय नहीं बचता तो नेताजी के द्वार मदत की पुकार करनी पड़ती है और नेताजी से मिल कर २-४ गुर्गे साथ ले जाना पड़ता है ताकि नेताजी के नाम के धौंस से बिल में कुछ छूट मिल जाएं और मिले भी क्यों नहीं आखिर आप नेताजी के जनता गण जो है जो कि हर ५ साल में अपना नाखून जो रंगवाते है। 
मुद्दा यही खत्म नहीं होता और कई बार तो जन्म प्रमाण पत्र भी वही ४ गुर्गे दिलवाते है क्युकी इस देश की सरकारी व्यवस्थाएं किसी से छुपी नहीं है और सरकारी मुलाजिमों से बेहतर काम टालना कोई नहीं जानता। मेरी खुद की बेटी के मामले में चक्कर लगा चुका हूं तो मुझसे बढ़िया आपबीती कौन बता पाएगा कि कैसे सरकारी बाबू समय पर दफ्तर आते ही चाय और गप्पे की आधे घंटे के अंतराल पर जाते है और सफ़र कि थकान मिटाते है और फिर सहकर्मियों संग कल दफ्तर से निकलने से लेकर रात्रिभोज के सारे पकवानों की चर्चा होती है। इस बीच अगर आप उनको गुड मॉर्निंग कहने की कोशिश भी करे तो भी आपको ऐसे देखते है मानो आपने प्रधानमंत्री से मिलने का समय मांग लिया हो। 
तो भई आखिरकार जरूरी हो ही जाता है कि नेताजी के नाम का सिक्का चलाया जाए तो अपना काम बनाया जाए।

जन्म से आगे बढ़े तो तीन चार साल में मुन्ना मुन्नी झोला झंडा लेकर पढ़ने को तैयार हो जाते है और आप चाहे आप देश के किसी भी कोने में हो एक बढ़िया स्कूल में एडमिशन कराने में आपकी चप्पलें घिस ही जाती है और बटूवे में छेद हो जाता है। स्कूल में एडमिशन कराना एक बहुत ही जटिल समस्या है और कई बार तो बिना नेताजी के दखल के आप इस समस्या से भी पार नहीं पा सकते क्युकी अधिकतर स्कूलों के मैनेजमेंट को नेताजी अपने प्रभाव में रखते है और कई स्कूल इनकी कृपा या काले धन से ही चलते है जिसपर माता सरस्वती अपने आशीर्वाद की कृपा बरसाकर श्वेत रंग का बना देती है। इतना ही नहीं नेताजी लोग अपने भावी वोटरों को रिझाने के लिए समय-समय पर स्कूल के कार्यक्रमों में आकर अपनी झलक देते रहते है ताकि चाहे नेताजी चुनाव लड़ें या उनका खानदान, जीतने में कोई शंका ना रह जाए।

अगर आप कभी छोटे मोहल्लों में रहे है तो आप बिल्कुल जानते होंगे कि चुनाव के मुद्दों में साफ पानी जरूर जगह बनाता है और जहा पर नेताजी कि कृपा दृष्टि नहीं जाती या लोग भाव नहीं देते वहां पानी मिलना कितना मुश्किल होता है। आजादी के ७५ सालों बाद भी यह मुद्दा इस देश में है ये सोच कर दुख तो जरूर होता है लेकिन अगर मुददे ही खत्म हो जाएंगे तो नेताजी क्या घास छीलेंगे??  जैसे आप अपनी जीविका के साधनों का ध्यान रखते है वैसे ही इस देश के नेतागण रोटी कपड़ा और मकान के मुद्दों को जिंदा रखते है और आपूर्ति कब और कितनी करनी है इसका बराबर ध्यान रखते है ताकि जनता ना बिदके क्युकी सब सही चलने लगा तो नेताजी को कैसे कोई याद करेगा और उनका तो आस्तित्व ही ख़तम हो जाएगा।

अटल जी के जमाने में एक गाना निकला था "सड़क में गडहा बा कि गड़हे में सड़क बा" हालाकि बाद में वो नेताजी उसी दल ने शामिल हो गए और गाना भूला गए भले समस्या ख़तम नहीं हुयी। नगरपालिकाएं भी नेताजी लोगो का भरपूर सम्मान करती है और जहां कहीं नेताजी का दौरा होता है वहां की सड़कों को शादी की दुल्हन की भांति तत्काल ठीक करती है ताकि नेताजी की महंगी गाड़ी में भी नेताजी को एक भी जर्क ना लगे भलबे जनता की कमर गड्ढों में गाड़ी चलाते चलाते टूट क्यूं न जाए। 

जब इस श्रृष्टि का निर्माण हुआ तो देने वाले ने हर चीज को समानुपात में दिया जैसे की ३ ऋतुएं, अन्न उपजाने योग्य और वातावरण अनुकूल जमीन, नदी तालाब और बहुत कुछ ताकि संतुलन बराबर बना रहे लेकिन जब इंसान ने ये मामला अपने हाथ में लिया तो इस बात का बराबर ध्यान रखा कि  कहीं सबको सब बराबर ना मिल जाए वरना उनका सम्मान कौन करेगा और इसीलिए उन्होंने यह सब कुछ रोक दिया जैसे किसानो का पानी, विद्यार्थियों और कारखानों की बिजली और गरीबो का राशन ताकि हर किसी को दर दर भटकना न पड़े और सारा निदान एक ही द्वार पर हो जाए। जब जरूरते होंगी तो ही न लोग नेताजी की द्वार फरियाद लेकर जायेंगे और काम निकलवाएंगे पर कभी सोचा है इस समाज सेवा से नेताजी को क्या फायदा मिलेगा ?? 

हाँ तो भई बेचारे नेताजी आपके भले के लिए किसानो की अनुपजाऊ जमीन सस्ते कीमतों में खरीद कर उसपर पर महंगे-महंगे स्कूल कॉलेज खुलवाएंगे, बीमारों के लिए महंगे-महंगे अस्पताल खुलवाएंगे और समाज को नए डॉक्टर मिलते रहे इसलिए मेडिकल कालेज भी बनवाएंगे जिसमे पढाने की औकात किसी गरीब की नहीं होगी। कारखाने के मालिकों को सेवा देके बोर्ड और कमिटी के मेंबर बनेंगे और सालो साल आपकी सेवा करते रहेंगे ताकि कोई नया नौसिखिया संतुलन ख़राब न कर दे। वैसे मैंने कभी देखा नहीं की कोई नेता या उनके खानदान का कोई सपूत कभी नौकरी किया हो (कुछएक को छोड़ कर पर वह गिनती भी शायद २ अंको न छू पाए) क्युकी उनके भाग्य में तो शीर्ष के स्थान ही होते है और हो भी क्यों न, बेचारे नेताजी ने अपनी जिंदगी आपकी सेवा में जो खपाई है तो इतना छोटा सा अधिकार तो है। 

ये सब तो नेताजी और उनके खानदान के बारे में था पर कभी सोचा है की नेताजी के गुर्गे और उनके खानदान का क्या होता है तो भई उनका होता कुछ ऐसा है की वो लोग जवानी में छाती चौड़ी कर के चलते है और जैसे-जैसे उम्र ढलती है, बैठ कर अपनी जवानी को कोसते है।  नेताजी के प्लान अनुसार गुर्गो के भी बच्चे नहीं पढ़ते और कही न कही किसी मॉल में झाड़ू पोछा करते मिल जाते है और वो भी नेताजी के कृपा से क्युकी नेताजी का मॉल में शेयर होता है और इसी तरह छोटे मोटे काम तो दिलवा ही सकते है और फिर एक नयी पीढ़ी नेताजी के बोझ तले दब जाती है और हर रैली और प्रदर्शनों में मुफ्त की भीड़ कम नहीं हो पाती।
 
अगर सड़कों पर आप निकलते है तो सड़क से ज्यादा आपको नेताजी के बैनर और पोस्टर नजर आते है और हर बैनर में नेताजी कहीं तो मुस्कुराते, कहीं किसी से फूल लेते और कहीं तो फुल साइज फोटो में जिसमे उनकी महंगी चप्पल से लेकर सदरी बराबर दिखती है में न जाने कहां निकल जाने की कोशिश में होते है। आपकी जानकारी के लिए बता दूँ की अधिकतर बैनर पोस्टर नेताजी खुद छपवाते हैं और जनता की तरफ से खुद का अभिवादन भी खुद ही कर लेते है। नेताजी के खुद के ही पैसों से छपाये हुए बैनर पोस्टर में खुद को ही "हार्दिक स्वागत" और "लख लख बधाइयाँ" वाले पोस्टर देखकर जरा भी भ्रमित न हो क्यूंकि इसे जनता ने नहीं लगवाया है क्युकी बेचारी जनता तो २ जून की रोटी की कवायत में लगी है और अपने मासिक बजट से निकाल कर खर्चने को २ नया पैसा नहीं होता। ये तो किस्सा कुछ ऐसा होता है जैसे की अध्यक्ष महोदय ने अध्यक्ष की उपस्थिति में खुद को अध्यक्ष नियुक्त कर लिया और १०*२० के बड़े बड़े पोस्टर लगवा कर खुद को ही बधाई दे डाली। बहुतेक जगह तो जनता जनार्दन का नाम भी सौजन्य में लिखवा लेते है ताकि जनता कंफ्यूज रहे की हमारे गांव, मोहल्ले से ही किसी ने छपाया होगा। जितना बड़ा मुद्दा, उतना ही बड़ा पोस्टर और पूरा ध्यान रखा जाता है कि सड़क पर एक भी बिजली का खंभा छूट न जाए ठीक वैसे जैसे की चुनाव प्रचार में गली मोहल्ले नहीं छूटते भले अगले कुछ दिनों में नेताजी जनता को सलाम करते कूड़े के ढेर में नजर आए या किसी गरीब की झोपडी पर छेदों को ढकने के काम में आए।

वैसे नेताजी की तारीफ़ में लिखते लिखते कलम सूख जायेगी इसीलिए लेखक को खुद को रोकना पड़ता है ताकि किसी और मुद्दे पर अपनी कलम घसीट सके। तो भई कहना और समझाना बस इतना है की जो भी हो रहा है वो नेताजी की कृपा से हो रहा है और जो भी होगा वो भी नेताजी की कृपा से ही होगा और जितना हो सके इस अनुकम्पा से बचने का भरपूर प्रयास करें और नेताजी का हार्दिक धन्यवाद दूर से ही करते रहे। 


कोशिश करियेगा की किसी नेताजी के हथ्थे ये प्रयास न चढ़ जाए पर जनता जनार्दन से जरूर साझा करियेगा और कोई त्रुटि रह गयी हो तो जरूर बताइयेगा।

Wednesday, July 8, 2020

संकट है पर कट जाएगा

संकट है पर कट जाएगा, सम्पन्नता का सूरज फिर चकमकाएगा
धीरज धरने का समय है धीर धरो, और ना की ख़ामख़ा वीर बनो।

शत्रु बहुत बलवान है, धूर्त है छिपा हुआ है और हम उस शक्ति से अनजान है,
पर बहुत नहीं यह टिक पाएगा, औंधे मुँह यह गिर जाएगा बस कुछ दिन की दरकार है। 

शत्रु यह अज्ञात है पाना इससे निजात है पर स्वयं ही रखना अपना ध्यान है 
हर पग फूँक फूँक कर रखना होगा, अपनी रक्षा खुद करना होगा।

कुछ दिन बच्चो को फुसलाना होगा, घर में ही खेल-कूद कराना होगा,
माना हमको कुछ दिक्कत होगी पर ऐसे ही ठेंगा दिखलाना होगा।

यह संकट भी कुछ सीखा रहा है, समाज को आईना दिखला रहा है,
फिर भी जो सीख न पायेगा, मझधार मे ही रह जाएगा।

सब रिश्ते नाते धरे रह जायेंगे, गर हम खुद को न समझायेंगे,
कोई मिलने तक न आयेगा गर इसमें कोई फ़स जाएगा। 

है बात पते की कहता हूँ, एकांत में ही कुछ दिन से रहता हूँ  
गर आप भी फिर कभी मिलना चाहें, फ़िलहाल घर में ही टिक जाएं।

टालना भी एक कला है।

आज का लेख उन सब दिग्गज बन्धु बांधवों को समर्पित हो आज का कल, काल का परसो और परसो वाले तरसो करने में माहिर है। 

इस लेख के माध्यम से किसी व्यक्ति विशेष को चिन्हित नहीं करना चाहता पर हां सब के भीतर के कुंभकर्ण को दर्शाना जरूर चाहता हूं क्युकी काम टालू इंसान भी कभी ना कभी तो काम करता ही है भले सुविधा या सिस्टम ख़तम हो जाने के बाद ही क्यू ना करे। काम टालने वाला काम तब शुरू करता है जब तक मामला हाथ से बाहर ना सरकता दिखे और हासिल करने की कोई उम्मीद ना बचे क्युकी आलसी के परम पूज्य कुंभकर्ण भी तो कुछ ना कुछ तो करता ही था वरना रावण क्यों उस बला को ढोल नगाड़े बजवा कर उठवाता।

असल जीवन में काम टालू लोगो को कुछ हद्द तक कुंभकर्ण का ही शेष मानते है और चाहे घर वाले हो या मित्रमंडली उनको तब तक नहीं कष्ट देते जब तक कोई आखिरी रास्ता बच ना गया हो। ऐसे लोगो की पहली समस्या तो ये होती है कि ये बहुत ही ज्यादा व्यस्त होते है और हो भी क्यों ना ढेरों सारे बकाया काम जो पीठ पर छोड़ रखे होते है और कईयों मामले तो ६ महीने तक पुराने होते है पर भाई साहब सब काम अगर सही सही और बिना किंतु परन्तु के होने लग जाए तो बेचारे लेखक अपने कागज पर कलम से क्या राजा रानी चोर पुलिस खेलेंगे। 
भाई इनसे ही तो प्रेरणा मिलती है और समाज का संतुलन बराबर बना हुआ है वरना अगर ये लोग दूसरे के लिए कुछ शिकायत का मौका ही न छोड़े तो समाज का संतुलन खराब ना हो जाए और काना फूसी का मौका ना ख़तम हो जाए।

एक काम टालू आदमी हर हफ्ते के शुरुवात में एक टास्क खुद के लिए तय करता है और जैसे जैसे सप्ताह बीतता जाता है वैसे वैसे भाई बंधु, मित्र गण, परिजन और धरम पत्नी को डिटेल टाइम के साथ समझाता है पर अब इसे किस्मत का खेल ही कहेंगे कि ऐन मौके पर कुछ ना कुछ छोटा सा विघ्न आ जाता है और पूरे समाज के सामने बनाई हुई योजना धरी की धरी रह जाती है। इस बात मे कोई दो राय नहीं कि कभी कभार ऐसी रुकावटें आती है जहां पर कार्यक्रम रद्द करना पड़े पर मेरा मानना है कि अलग दिल में लगन हों कुछ पाने की तो बंदा कुछ भी कर गुजरता है और सारे जतन करता है ताकि प्रोग्राम फेल ना ही लेकिन ये सारी ज्ञान की बातें काम टालू लोगो पर नहीं जचती क्युकी उनके अलग ही नियम कानून है और एक बार जो कमिटमेंट कर दी वो वो पूरा हो ऐसा जरूरी नहीं समझा जाता है। संस्कृत में एक श्लोक है,

अलसस्य कुतो विद्या , अविद्यस्य कुतो धनम् | 
अधनस्य कुतो मित्रम् , अमित्रस्य कुतः सुखम् || 

अर्थात्: आलसी को विद्या कहाँ अनपढ़ / मूर्ख को धन कहाँ निर्धन को मित्र कहाँ और अमित्र को सुख कहाँ |

हालाकि जब शास्त्रों में इसे लिखा गया होगा उस समय यह अलग वाली प्रजाति जो न तो पूरी तरह कामचोर है और न ही पूरी तरह फुर्तीली आस्तित्व में नहीं थी और इसी लिए ये श्लोक भी कुछ सटीक नहीं चिपकता इस वर्ग पर। दरअसल यह एक अलग प्रजाति है जो भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार की ही भांति कई शर्तो को सटीक तरीके से काट कर निकलती है। आलसी और काम टालू में एक बड़ा अंतर है, आलसी आदमी कुछ नहीं करता लेकिन काम टालू करता है पर अपने हिसाब से और भले ही उसका हिसाब किताब लंबा चले पर करता जरूर है।

जैसा कि पहले ही बताने का प्रयास किया की ये किसी को केन्द्रित कर के नहीं लिखा है पर हर किसी के अंदर छिपे उस किरदार को उंगली दिखाने की कोशिश की है जो कि टाल मटोल कर और खीच घसीट कर जिम्मेदारी निपटाता है क्युकी न तो वो बेचारा कामचोर है न तो आलसी, बस वो तो खाली एक काम टालू है। अपने स्वयं के अनुभव से बस २ ही बिन्दुओं की तरफ आकर्षित करूंगा जो कि अमूमन अधिकतर लोगो की समस्या बनी है।

१) व्यायाम: उम्मीद है कि एक मुस्कुराहट आ गई होगी क्युकी ये हर दूसरे इंसान का ख्वाब है।
२) पढ़ना: शिक्षा जीवन का आधार है और जिस प्रकार प्रकाश बिना अंधकार है वैसे ही जीवन में शिक्षा बिना अंधकार है। हर किसी को अपनी रुचि और काम के अनुसार रोज तकरीबन आधे से एक घंटा पढ़ना चाहिए पर फिर भी ये बहुत मुश्किल है।

अब आपकी बारी है कि अपनी लंबे समय से टाली हुई समास्या के बारे में ध्यान लगाए और लिख कर बताए या अपने आप से बात करे क्युकी आदमी खुद से झूट नहीं बोल सकता। टालना खुद एक समस्या है सो इस समस्या को टाल के रबड़ ना बनाए और जड़ से ख़तम करने की पहल करें क्युकी जब हम कुछ करते है तो जरुरते पैदा होती है और आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है इसीलिए खुद को भले काम में व्यस्त रखे और इस लेख के पात्र बनने से बचें।


अपने विचार जरूर साझा करें न कि काम टालू की तरह इस प्रयास को भी टाल जाए ।

Monday, July 6, 2020

दोस्तों के पास वक़्त नहीं है

शीर्षक पढ़ कर तो आपने अनुमान लगा ही लिया होगा कि आज इस कागज पर कलम से दिल का दर्द बयां होगा।

बुजुर्गों से सुना था कि जीवन में ३ अवस्थाओं में दोस्त बनते है और वो अवस्थाएं क्रमशः कुछ ऐसी होती है,

१) स्कूल के दोस्त: बचपन में पढ़ाई के दरम्यान बने दोस्त कम से कम १० साल तो साथ निभाते है थे क्युकी शिशु वर्ग से शुरू होने वाली दोस्ती क्लास १० तक किसी भी तरह चलती ही थी। रोज सुबह उठ कर स्कूल जाना और ६ घंटे पढ़ाई के साथ खेल कूद और तीखी मीठी नोकझोक के साथ वो बचपन के दिन बीत जाते थे।
अगर सब सही रहा तो कुछ एक दोस्त तो ग्रेजुएशन तक साथ देते थे।

२) दफ्तर / नौकरियों वाले दोस्त: दादा और बाबूजी के जमाने में तो लोग एक नौकरी पकड़ते थे और बुढ़ापे के  पेंशन तक वहीं रहते थे और मानवीय स्वभाव नुसार दोस्त बन ही जाते है। सबसे लंबी यही दोस्ती चलती थी और अमूमन ४० साल का याराना होता ही था लेकिन आज कल के फास्ट ट्रैक जमाने में जैसे जैसे हमारी जरुरतों ने पैर पसारे हम बेचारो ने कंपनियां बदलनी शुरू की फिर भी दोस्त बनाने नहीं छोड़े और जितना लंबा हो सके दोस्तों को सोशल मीडिया के जरिए बांधे रखने की भरपूर कोशिश की। 

३) घर के पड़ोसी दोस्त: जैसे परिंदे दिन भर कहीं भी टहले, शाम को घोसले में लौट आते है वैसे ही इंसान कितना भी कहीं भी फुदके पर शाम ढलते ढलते अपने आशियाने में आ ही जाता है और अपने सबसे करीबी और लंबे समय से बने दोस्तो के पास निकल ही लेता है। ये जो आखिरी श्रेणी है ये वाले हर जगह साथ ही होते है जैसे की स्कूल के समय साथ पढ़ने जाते है, कोचिंग में भी साथ ही होते है, खेल कूद तो इनके बिना संभव ही नहीं, दूसरे मोहल्ले के लड़कों से मारपीट भी इनका बिना संभव नहीं। दोस्तो की शादी में कार और घोड़ी के आगे भी यही नाचते है और एक तरह से कहूं तो जीवन इनका बिना संभव ही नहीं।

अभी लिखना काफी कुछ है इसी लिए मुद्दा नंबर ३ से जबरदस्ती कलम खीचना पड़ा क्युकी जैसे भगवान विष्णु में संसार समाया है वैसे ही इन कमीनो में सारा सुख दुख, खेल कूद मौज मजा सब समाया है और इनके बारे में लिखते लिखते कलम सुख जाएगी पर बाते ना ख़तम होंगी। बचपन से जवानी तक इनके ही कंधो पे हाथ रख कर घूमे और हर एक का बाप, दूसरे को कभी तो बदमाश बताता और कभी एकाध बार पढ़ता देख हमको जी भर गरियाता। कई बार तो कमिने जबरदस्ती कुटवा देते पापा से पर मजाल हो की किसी दूसरी गैंग का लड़का हाथ भी लगा जाए या हड़का जाए। "अभी तेरा भाई जिंदा है बोलते बोलते" कभी ना थकने वाले और एक आवाज पर सारे जरूरी काम छोड़ साथ चल देने वाले यार अब जब गली के किनारे या चौपाल पर नहीं दिखते तो एक बेचैनी होती है कि क्या इन कुछ सालों में जिंदगी इतनी व्यस्त हो गई है कि जिगर के छल्लो के साथ एक कप चाय भी ना हो पाए। ये कमाल या तो भाभी का है या तो बढ़ती ज़िम्मेदारियों का है पर पर ऐसा भी क्या जीना की मिलने का वक़्त नहीं।

पहले मौके मौके पर जुटकर दोस्तो के घर बैठक होती और चाचियां नमकीन चिवड़ा प्यार से खिलाती पर कुछ कमाल तो जरुर है भाभी का क्युकी ना तो चाय चिवड़ा मिलता है और ना ही अपने भाई की दर्शन। मुझको ठीक ठीक याद है की हमारी मंडली में कुल ३५ नौजवान लड़के हुआ करते थे और जो चाहा प्लान बना लिया यहां तक कि बहुचर्चित तीर्थ गोवा के लिए भी पिकनिक में १७ चल दिया और यकीन मानो उतना बड़ा दल वो भी मात्र लड़कों का वो भी गोवा में कुछ बजरंग दल सा अनुभव कराता था। हर एक भाई ५००० लाया था इसका सीधा अर्थ है कि पैसा समस्या नहीं हो सकता भले इच्छा शक्ति जरुर हो।

ऐसे कई किस्से होते थे जहां बस आवाज कि देर थी और भाई बन्धु लोग एक टांग पर खड़े हो जाते थे हालांकि इतने संसाधन तब नहीं थे और प्राइम टाइम न्यूज से भी बेहतरीन खबरें इनसे ही मिलती थी जैसे कि किसका टाका किससे भिड़ा है, और कौन किसके पीछे पड़ा है। गंभीर चर्चाएं भी होती थी कि इस बार किस नगरसेवक को जिताना है और अपने कौन-कौन से काम करवाने है हालांकि इस चुनावी संघर्ष में उम्मीदवार की तरफ से पार्टियां भी मिलती थी। मामला यहीं नहीं रुकता था और हर साल दोस्त कहीं ना कहीं मंडली के साथ निकल ही पड़ते थे भले वो गणेशजी के पंडालों के चक्कर लगाना ही क्यों न हो। कहने का मतलब अपने भाई लोग बिजी नहीं थे इतने की दूसरे भाई की पुकार पर बाहर ना आए और वह भी बस एक आवाज़ पर।

पिछले कुछ सालों में बस एक इतना ही अंतर आया है कि हर किसी ने बढ़िया से बढ़िया हैंडसेट लिया है सुंदर से सुंदर भाभी लाया है बाकी नौकरी कि जद्दोजहद पहले भी थी और अनंत काल तक रहेगी। समस्या हमको ना हैंडसेट से है और ना ही उनके जीवनसाथी से है बस समस्या ये है कि अपना भाई बस अब हमको समय नहीं देता और ना तो घर से निकलना चाहता है। सोशल मीडिया के माध्यम से एक कृत्रिम रूप से जुड़ा हुआ है वॉट्सएप पे भेजे गए चुटकुलों पे अपनी सहमति का अंगूठा दिखा देता है और बहुत ज्यादा हो तो बस हाहाहाहा लिख कर ये जता जाता है कि है भी मै भी आपके जोक पढ़ता हूं। कुछ समस्या हो तो या तो लेट जवाब देता है या तो चुकपे से इग्नोर कर जाता है। पहले के गली मोहल्लों के शेर अब वॉट्सएप के शेर है और हमेशा एक दूसरे की बातों को झुठलाने और नुस्क खोजने का हर भरसक प्रयास करते है। 

चौपाल पर होने वाली हसी ठिठोली अब मोबाइल पर होती है पर वो दम नहीं है इसमें क्युकी जो मजा बात बात पर ताली दे कर चटकारे लगाने में था वो अकेले में नहीं और एक तौर पर कहें तो अजीब सा सूनापन सा हो गया है क्युकी अपने भाई के पास अब समय नहीं है। कारण कुछ भी हो पर तकरीबन तकरीबन मुद्दा यही है दोस्त अब झिझकने लगे हैं और कन्नी काटने लगे है जो कि कहीं ना कहीं यही सब अखरता है।

दिल का दर्द है साहब और चाहे दोस्तों को शायद अंदाज हो चाहे ना हो पर एक बात तो तय है कि दोस्तो के पास अब मिलने का वक्त भी नहीं है।

Tuesday, June 30, 2020

कोरोना के बाद की दुनिया

चाहे कोरोना कहें या चाइना वायरस कह ले या फिर WHO द्वारा नामांकित COVID -19 लेकिन है तो ये विनाशक और सत्यानाशी रोग जो की मरीजों की जीवनलीला तो ख़तम किया ही पर साथ ही सम्पूर्ण विश्व की अर्थ व्यवस्था भी खा गया।

अमूमन गर्मी की छुट्टिया लोग अपने गावों और वेकेशन पे बिताते थे और कई तो शौकन गाड़ियां किराये पर लेकर दूर दराज पहाड़ियों में निकल पड़ते थे पर इस महामारी ने असर के साथ डर भी इतना बिठा दिया दिल में की घर से निकलना तो मानो पाप ही लगने लगा और लगे भी क्यों नहीं आखिर "जान है तो जहान है" वाली कहावत हर किसी ने सुनी है तो फिर क्यू जबरदस्ती शक्तिमान बनने की कोशिश की जाये।

इस कोरोना ने एक तरीके से लोगो को शिष्टाचार भी सिखाया की कैसे लोगो से मिले तो उन्हें नमस्ते कर के मिलें न की अंग्रेजो जैसे हाथ मिलाकर और जितना हो सके आपसी भाईचारे को २ गज की दुरी से ही पालें। एक और फायदा ये हुआ की लोगो ने बाहर का जंक फ़ूड जो अमृत समझ लिया था उस अमृत की चाहत में ९९% की कमी आई हालांकि दिल ही तो है इसी लिए १% का इश्क़ अभी भी पिज़्ज़ा, समोसा चाट और गोलगप्पों के लिए छोड़ रखा और रखे भी न क्युकी ये कोरोना फोरोना तो आते जाते रहना लेकिन गोलगप्पे तो पथ्थर की लकीर की तरह दिल पर अंकित है।

दरअसल इंसान एक तरह से अपने को बहुत बड़ा समझने लगा था और दिन दूनी रात चौगुनी फुर्ती से दौड़ा जा रहा था और इस चक्कर में सब पीछे छोड़ चला था लेकिन इस महामारी ने लोगो को  समझाया की परिंदा दिन भर चाहे जितना उड़ ले पर रात को घोसले में लौट ही आता है। कोरोना की कश्मक़श में पुरे परिवार के साथ बैठ कर चाय-नाश्ता और डिनर करना फिर शुरू करवा दिया और आखिरकार पता चला की घर की होम मिनिस्टर साहिबा खाना, बर्तन कपड़ो के अलावा बहुत कुछ करती है और पुरुष समाज को एहसास भी नहीं होने देती।

बनिए से सामान खरीद कर खा लेते समय हमको कभी एहसास न हुआ की न जाने किस किस ने छुआ और न जान कौन कैरियर हो लेकिन इस कोरोना ने इस चीज का भी एहसास कराया की हाइजीन से बढ़ कर कुछ नहीं क्युकी स्वस्थ शरीर ही सबसे बड़ी पूंजी है।
ट्रैन और बसों की ठूसम ठूस में पहले अंदाज था की "पहले मैं पहले मैं" लेकिन यहाँ भी सब लखनवी नवाब बन ही गए और "पहले आप पहले आप और फिर हाथ senitizer से साफ़" करने लगे।

बदलाव तो काफी हुआ और मुख्य बात जो मुझे सबसे बढ़िया लगी वो थी शराब बंदी सच माने तो कई शराबीयों ने तो लॉकडाउन में हजारो बचा लिए और जिनका दिल कुत्ते की पूछ जैसा है वो दोगुना कीमतों पर खरीद कर भी गला तर कर बैठे। नकारात्मक चीजों को छोड़ें तो फिर भी इस मामले में तो अच्छा ही हुआ और  सरकारों को भले नुकसान हुआ हो पर परिवार वाले बड़े खुश दिखे।

एक और मुद्दा था मोहल्ला सफाई का जिसमे मुन्सिपलिटी से अमूमन जनता कुछ उम्मीद नहीं करती पर अबकी सफाई की पूरी उम्मींद की ताकि गली मोहल्ले साफ़ रहें और कोरोना दूर ही रहे। कई लोगो ने तो सेनिटिज़ेर का धंधा ही लगा लिया और गली गली मास्क बेचने वाला घूमने लगा जैसे पहले आम केले वाले घूमते थे। बुराइयां चाहे लाखो हो पर जो सफाई लोगो ने शुरू की है वो जरूर जारी रहनी चाहिए ताकि ऐसे कोरोना फोरोना कभी दुबारा इस देश में न घुस पाए।

तकलीफ तो उठानी पड़ीं पर कुछ चीजें मन को संतुष्टि भी देती रहीं जैसे कि,

१) साफ सफाई
२) जंक फ़ूड से कन्नी काटना
३) चीनी सामान का जागतिक बहिष्कार

बहूत दिनों से मेरा देश एक मानसिक बंधन में था और मान बैठा था की सुई से लेकर जहाज तक सब चीन के अलावा कोई नहीं दे सकता और सरकारें मूक दर्शक के भाँती चुपचाप सब तमाशा देख रही थी पर मेरे देश में एक लहर जागी और एक धक्के के साथ पिंजरे में फसा शेर पिजरा तोड़ बाहर निकल आया।
माना इस राह में रोड़े बहुत आएंगे और कई बार तो थक कर बैठने का दिल भी करेगा लेकिन मेरे देश की खरीद शक्ति हर किसी व्यापारी देश को घुटने पर ला देगी और आइना दिखा देगी।
गजल सम्राट जगजीत सिंह जी की एक गजल की प्यारे से बोल थे "सफर में धुप तो होगी पर चलना होगा" और सही भी लगता है क्युकी अब जब निकल पड़े है तो मजिल तक पहुंच कर ही मानेंगे। कुछ चीजे और भी सीखने मिली जो की हर किसी के लिए जरुरी सबक है और अब से ही प्रण ले की कोशिश करेंगे की लक्षम्ण रेखा न लांघेंगे,

१) अनावशयक चीजों की खरीद करना
२) महीने की आमदनी से कम से कम १०% बचा कर जमा करे
३) बहुत बड़े बडे इन्वेस्टर्स के झांसे में न आये क्युकी ये आपको फुसलाते है और अपनी जेब भरते हैऔर संकट समय सबसे पहले शेयर बाजार डूबता है।
४) अनावश्यक लोगो से लेन देन न करे 

इस महामारी ने बहुत कुछ दिखाया और बहुत कुछ सिखाया हालांकि सबक को याद रखना जरुरी है क्युकी संकट समय तो कट जायेगा और टिकेंगे वही जो मानसिक रूप से तैयार हों।




मनोगत : मन के विचारों को व्यक्त करने का भरपूर प्रयास किया है और अगर बढ़िया लगे या कुछ त्रुटि रह गयी हो तो जरूर बतायें ताकि प्रयासों को बल मिलता रहे। 

Tuesday, June 23, 2020

पिता


व्यक्तित्व से कठोर पर हृदय से मर्म होता है पिता 
तुम क्या जानो क्या क्या न करता है तुम्हारा पिता। 

एक रोटी तुम्हे कम न हो इसलिए तपता है पिता,
तुम्हारे माथे से पसीना भी न टपके इसलिए न थकता है पिता।

रोजमर्रा की कशमकश की थकान छिपाता है पिता,
सो जाये बच्चे तो भी उनके सर सहलाता है पिता। 

अमूमन दो पीढ़ियों के बीच जातों मे पिस जाता है पिता,
और फिर कभी अम्मा तो कभी मुन्ना को फुसलाता है पिता। 

पुरुष है मतलब ऐसा नहीं की कभी भावुक ही नहीं होता,
बस अपने भीनी आँखों को हर किसी से छुपाता है पिता। 

दो शब्दों का नाम है पर खुद में ही संसार समाता है पिता।




मन के विचारो को कागज़ को उतारने का पहला प्रयास किया है और सराहनीय लगे तो अवश्य साझा करे ताकि ऐसे प्रयासों को शक्ति मिले। 

अच्छी व्यवस्थाएं आपने चाही ही कब थीं ?

नमस्कार पाठको , विषय से एकदम सट कर फिर पूछता हूँ की इस देश में अपने सुव्यवस्था, सुसाशन, बेहतरीन मेडिकल सेवाएं, सड़क, रेल, बिजली और न जाने क्य...