Monday, July 6, 2020

दोस्तों के पास वक़्त नहीं है

शीर्षक पढ़ कर तो आपने अनुमान लगा ही लिया होगा कि आज इस कागज पर कलम से दिल का दर्द बयां होगा।

बुजुर्गों से सुना था कि जीवन में ३ अवस्थाओं में दोस्त बनते है और वो अवस्थाएं क्रमशः कुछ ऐसी होती है,

१) स्कूल के दोस्त: बचपन में पढ़ाई के दरम्यान बने दोस्त कम से कम १० साल तो साथ निभाते है थे क्युकी शिशु वर्ग से शुरू होने वाली दोस्ती क्लास १० तक किसी भी तरह चलती ही थी। रोज सुबह उठ कर स्कूल जाना और ६ घंटे पढ़ाई के साथ खेल कूद और तीखी मीठी नोकझोक के साथ वो बचपन के दिन बीत जाते थे।
अगर सब सही रहा तो कुछ एक दोस्त तो ग्रेजुएशन तक साथ देते थे।

२) दफ्तर / नौकरियों वाले दोस्त: दादा और बाबूजी के जमाने में तो लोग एक नौकरी पकड़ते थे और बुढ़ापे के  पेंशन तक वहीं रहते थे और मानवीय स्वभाव नुसार दोस्त बन ही जाते है। सबसे लंबी यही दोस्ती चलती थी और अमूमन ४० साल का याराना होता ही था लेकिन आज कल के फास्ट ट्रैक जमाने में जैसे जैसे हमारी जरुरतों ने पैर पसारे हम बेचारो ने कंपनियां बदलनी शुरू की फिर भी दोस्त बनाने नहीं छोड़े और जितना लंबा हो सके दोस्तों को सोशल मीडिया के जरिए बांधे रखने की भरपूर कोशिश की। 

३) घर के पड़ोसी दोस्त: जैसे परिंदे दिन भर कहीं भी टहले, शाम को घोसले में लौट आते है वैसे ही इंसान कितना भी कहीं भी फुदके पर शाम ढलते ढलते अपने आशियाने में आ ही जाता है और अपने सबसे करीबी और लंबे समय से बने दोस्तो के पास निकल ही लेता है। ये जो आखिरी श्रेणी है ये वाले हर जगह साथ ही होते है जैसे की स्कूल के समय साथ पढ़ने जाते है, कोचिंग में भी साथ ही होते है, खेल कूद तो इनके बिना संभव ही नहीं, दूसरे मोहल्ले के लड़कों से मारपीट भी इनका बिना संभव नहीं। दोस्तो की शादी में कार और घोड़ी के आगे भी यही नाचते है और एक तरह से कहूं तो जीवन इनका बिना संभव ही नहीं।

अभी लिखना काफी कुछ है इसी लिए मुद्दा नंबर ३ से जबरदस्ती कलम खीचना पड़ा क्युकी जैसे भगवान विष्णु में संसार समाया है वैसे ही इन कमीनो में सारा सुख दुख, खेल कूद मौज मजा सब समाया है और इनके बारे में लिखते लिखते कलम सुख जाएगी पर बाते ना ख़तम होंगी। बचपन से जवानी तक इनके ही कंधो पे हाथ रख कर घूमे और हर एक का बाप, दूसरे को कभी तो बदमाश बताता और कभी एकाध बार पढ़ता देख हमको जी भर गरियाता। कई बार तो कमिने जबरदस्ती कुटवा देते पापा से पर मजाल हो की किसी दूसरी गैंग का लड़का हाथ भी लगा जाए या हड़का जाए। "अभी तेरा भाई जिंदा है बोलते बोलते" कभी ना थकने वाले और एक आवाज पर सारे जरूरी काम छोड़ साथ चल देने वाले यार अब जब गली के किनारे या चौपाल पर नहीं दिखते तो एक बेचैनी होती है कि क्या इन कुछ सालों में जिंदगी इतनी व्यस्त हो गई है कि जिगर के छल्लो के साथ एक कप चाय भी ना हो पाए। ये कमाल या तो भाभी का है या तो बढ़ती ज़िम्मेदारियों का है पर पर ऐसा भी क्या जीना की मिलने का वक़्त नहीं।

पहले मौके मौके पर जुटकर दोस्तो के घर बैठक होती और चाचियां नमकीन चिवड़ा प्यार से खिलाती पर कुछ कमाल तो जरुर है भाभी का क्युकी ना तो चाय चिवड़ा मिलता है और ना ही अपने भाई की दर्शन। मुझको ठीक ठीक याद है की हमारी मंडली में कुल ३५ नौजवान लड़के हुआ करते थे और जो चाहा प्लान बना लिया यहां तक कि बहुचर्चित तीर्थ गोवा के लिए भी पिकनिक में १७ चल दिया और यकीन मानो उतना बड़ा दल वो भी मात्र लड़कों का वो भी गोवा में कुछ बजरंग दल सा अनुभव कराता था। हर एक भाई ५००० लाया था इसका सीधा अर्थ है कि पैसा समस्या नहीं हो सकता भले इच्छा शक्ति जरुर हो।

ऐसे कई किस्से होते थे जहां बस आवाज कि देर थी और भाई बन्धु लोग एक टांग पर खड़े हो जाते थे हालांकि इतने संसाधन तब नहीं थे और प्राइम टाइम न्यूज से भी बेहतरीन खबरें इनसे ही मिलती थी जैसे कि किसका टाका किससे भिड़ा है, और कौन किसके पीछे पड़ा है। गंभीर चर्चाएं भी होती थी कि इस बार किस नगरसेवक को जिताना है और अपने कौन-कौन से काम करवाने है हालांकि इस चुनावी संघर्ष में उम्मीदवार की तरफ से पार्टियां भी मिलती थी। मामला यहीं नहीं रुकता था और हर साल दोस्त कहीं ना कहीं मंडली के साथ निकल ही पड़ते थे भले वो गणेशजी के पंडालों के चक्कर लगाना ही क्यों न हो। कहने का मतलब अपने भाई लोग बिजी नहीं थे इतने की दूसरे भाई की पुकार पर बाहर ना आए और वह भी बस एक आवाज़ पर।

पिछले कुछ सालों में बस एक इतना ही अंतर आया है कि हर किसी ने बढ़िया से बढ़िया हैंडसेट लिया है सुंदर से सुंदर भाभी लाया है बाकी नौकरी कि जद्दोजहद पहले भी थी और अनंत काल तक रहेगी। समस्या हमको ना हैंडसेट से है और ना ही उनके जीवनसाथी से है बस समस्या ये है कि अपना भाई बस अब हमको समय नहीं देता और ना तो घर से निकलना चाहता है। सोशल मीडिया के माध्यम से एक कृत्रिम रूप से जुड़ा हुआ है वॉट्सएप पे भेजे गए चुटकुलों पे अपनी सहमति का अंगूठा दिखा देता है और बहुत ज्यादा हो तो बस हाहाहाहा लिख कर ये जता जाता है कि है भी मै भी आपके जोक पढ़ता हूं। कुछ समस्या हो तो या तो लेट जवाब देता है या तो चुकपे से इग्नोर कर जाता है। पहले के गली मोहल्लों के शेर अब वॉट्सएप के शेर है और हमेशा एक दूसरे की बातों को झुठलाने और नुस्क खोजने का हर भरसक प्रयास करते है। 

चौपाल पर होने वाली हसी ठिठोली अब मोबाइल पर होती है पर वो दम नहीं है इसमें क्युकी जो मजा बात बात पर ताली दे कर चटकारे लगाने में था वो अकेले में नहीं और एक तौर पर कहें तो अजीब सा सूनापन सा हो गया है क्युकी अपने भाई के पास अब समय नहीं है। कारण कुछ भी हो पर तकरीबन तकरीबन मुद्दा यही है दोस्त अब झिझकने लगे हैं और कन्नी काटने लगे है जो कि कहीं ना कहीं यही सब अखरता है।

दिल का दर्द है साहब और चाहे दोस्तों को शायद अंदाज हो चाहे ना हो पर एक बात तो तय है कि दोस्तो के पास अब मिलने का वक्त भी नहीं है।

2 comments:

अच्छी व्यवस्थाएं आपने चाही ही कब थीं ?

नमस्कार पाठको , विषय से एकदम सट कर फिर पूछता हूँ की इस देश में अपने सुव्यवस्था, सुसाशन, बेहतरीन मेडिकल सेवाएं, सड़क, रेल, बिजली और न जाने क्य...