Monday, April 5, 2021

सर सलामत तो पगड़ी हजार

 सर सलामत तो पगड़ी हजार, जान सलामत तो फिर मस्ती हजार 


नमस्कार मित्रो, बड़ी ही पुरानी कहावत है की सर सलामत तो पगड़ी हजार तो सोचा क्यों न आज इसी को अपना शीर्षक बना लूँ और जैसे नाम देखते ही फिल्म का अंदाजा हो जाता है वैसे ही आप विषय की कल्पना कर लें। चलिए इस बात को यही छोड़ते है और आगे बढ़ते है ताकि कुछ और मुख्य मुद्दों पे प्रकाश डाला जाये और अपने इस सामाजिक स्थिति को व्यंग्य के रूप से साझा किया जाए। 

जब भी इस कहावत को सुनता हु तो न जाने क्यों हेलमेट की याद आ जाती है क्युकी सबसे पहली वही चीज है जो की इस कहावत पे फिट बैठती है अब मामला चाहे क्रिकेट का हो चाहे दोपहिया गाडी चाहे तो कंस्ट्रक्शन लाइन, आप अधिकतर लोगो को हेल्मेंट पहने देखंगे क्युकी जैसे की रहीम दास जी भगवन नारायण के लिए कहते है कि,

रहिमन यहि संसार में, सब सो मिलिय धाइ। 

ना जानैं केहि रूप में, नारायण मिलि जाइ || 

रहीम दास के अनुसार न जाने किस रूप में भगवन मिल जाये वैसे ही न जाने कहा से कुछ आ लगे इस सरीर के मुकुट पर और जीवन लीला समाप्त हो जाए  तो भैया खतरा टालो और सर सलामत रखो पर जिनको ब्रम्हा जी का आशीर्वाद प्राप्त है वो इस ज्ञान को इगनोर कर सकते है। हालांकि हेलमेट के मुद्दे को ज्यादा नही खींचना चाहता क्युकी ऐसे मुद्दे पर बात करने से वही बात होगी की मानो पड़ोस में लड़ाई चल रही हो और पडोसी तानपुरे और तबले बजाये जा रहे है हालांकि सच्चाई ये भी है कुछ ख़ुशी में बजाते भी है लेकिन क्लियर कर दू कि लेखक न तो ये सब बजाते है और ना ही अपवाद में पड़ना चाहता है। 

जिस समय ये लेख लिखा जा रहा है उस समय यह समूचा विश्व ४-५ फ़ीट के छोटी नाक वाले चीनी लोगो द्वारा निर्मित कोरोना वायरस से जूझ रहा है जिसमे की विश्व स्वास्थ्य संस्था (WHO) भी लगभग लाचार और कंफ्यूज नजर आ रही है।  कंफ्यूज इसलिए कह रहा हु क्यूंकि उनके निर्देशों में कही भी गंभीरता नहीं है और अपने ही बयानों से पलट पलट के कई बार उन्होंने नए कीर्तिमान भी स्थापित किये है जिससे कि उनके ज्ञान और रिसर्च पर बच्चा भी बहस कर सकता है। कई बार तो ऐसा भी एहसास होता है काले कोट पेंट में बैठे वहां के पॉलिसी मेकर चंदे मांगने वालो से ज्यादा कुछ भी नहीं क्युकी जितना फोकस उनका डोनेशन पे रहता है उसका आधा भी अगर प्रॉब्लम के निपटारे और सही तरीके खोजने मे लगाते तो शायद आज ऐसे शब्दों से उनका सम्मान न करना पड़ता। 

हमारे देश को अनेको बार बीमारियों और महामारियों का सामना करना पडा है और अपने जीवन काल में मैंने खुद हैजा, पीलिया और प्लेग जैसे महामारियों के नाम सुने, लोगो को पीड़ित होते देखा और रोकथाम के हर प्रयास करते देखा क्युकी मेरा मानना है की किसी हद तक तो WHO और सरकारों के पास रोकथाम के तरीके थे और उनकी बातो में एक सत्यता थी ना की अभी की तरह कि, ऐसे भी हो सकता है, वैसे भी हो सकता है और हमें खुद नहीं पता की कैसे कैसे हो सकता है वाले बेतुके बयान।  आज विश्व की आर्थिक और मेडिकल तरक्किया नए आयाम पे है लेकिन कही न कही इच्छाशक्ति की कमी और समस्या को टालने का प्रयास इस बार पार नहीं पड़ने दे रहा है। आधुनिकीकरण के इस युग में जैसे जैसे ज्ञान और शिक्षा के नए माध्यम उपलब्ध है वैसे वैसे लगता है की जनमानस के बुद्धि का प्रयोग कम हो गया है और कई बार तो ऐसा भी लगता है की बुद्धि को तो कई लोगो ने आलमारी में रख दिया है ताकि कही घिस न जाए। एक कहावत है की "गेहू के साथ घून भी पीसता है" और अगर इसी उदहारण को सत्य माने तो वो जो बिना मास्क वाले और सारी एडवाइजरी को ताक पे रखने वाले घूम रहे है न, वही समाज के घून है और बाकी को आप गेहू मान लीजिये पर क्या इस बात से आपको भय नहीं लगता की आज गेहू के अनुपात में घुन काफी बढ़ गया है और कही ऐसा न हो कि एक दिन गेहू ही न बचे और सारा का सारा घून ही हो जाये तो क्या ऐसी स्थिति में मानव समाज चल पायेगा ? स्थिति अगर यही रही तो कुछ दिनों में बुद्धिजीवियों, सतसंगी और समाज के बढ़िया लोगो को सुरक्षित रखना पड़ जाएगा क्युकी इस धरती पर मानव संस्कृति विधाता की सबसे बड़ी और सबसे सुन्दर रचना है और मानव संस्कृति के उत्थान के लिए समाज संजोना ही होगा। 

मेरी तो कल्पना मात्र से दिल बैठ जाता है लेकिन सच्चाई यही है की आधुनिकता की आड़ में दुनिया भर के लोगो को और किसी की कोई परवाह नहीं रह गयी है और जो भी जी रहा है बस खुद के लिए जी रहा है। अमूमन कई बार देखने मिलता है कि सडको पर लोग इसलिए भी मार पीट के लिए उतारू हो जाते है की सामने वाला उसे ज्ञान न बांचे और और जैसा चल रहा है वैसे ही चलने दे क्यूंकि बिन कायदे कानूनों और जंगलराज में जो फायदा है वो सभ्य समाज में नहीं है क्युकी सभ्य समाज में कुछ बंधन होते पर जंगल में कोई बंधन नहीं होता।

इस महामारी को न ख़तम करने में आज के आधुनिक समाज,प्राइवेट अस्पतालों, राज्य सरकारो, दवा कंपनियों और भय का व्यापार करने वालो का बहुत बड़ा हाथ है क्युकी अगर ये महामारी ख़तम हो गयी तो समाज के ऐसे कीड़ो का जीना मुश्किल हो जायेगा जो की दुसरो का खून पीकर जीते है और दुसरो की लाशो पर के चल के अपनी मंजिल तय करते है लेकिन समय के साथ इसमें ऐसे लोगो की भी उतनी ही जवाबदारी है जो की अपने जिद्दी पने और संकुचित मानसिकता के कारण दुसरो को लाचार बना रहे है। मेरा आग्रह है कि समय रहते ऐसे लोगो को पहचान कर उनसे उचित दुरी बना लीजिये वरना अपने ऐसे आराम और मुर्ख सोच के कारण ये समाज को पूरा खोखला बना देंगे और फिर हर शाख पर इन्ही उल्लुओं का निवास होगा। 

जब तक यह समस्या ख़तम न हो जाए तब तक सरकारी निर्देशों और नियमो का पालन करते रहे बस इसी आग्रह के साथ अपनी लेखनी को विराम देता हूँ। 

No comments:

Post a Comment

अच्छी व्यवस्थाएं आपने चाही ही कब थीं ?

नमस्कार पाठको , विषय से एकदम सट कर फिर पूछता हूँ की इस देश में अपने सुव्यवस्था, सुसाशन, बेहतरीन मेडिकल सेवाएं, सड़क, रेल, बिजली और न जाने क्य...